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आओ उसकी जिंदगी सजाएं

मेरी लेखनी :मेरा परिचय
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सफेद झक साङी ,गले में तुलसी माला,श्रृंगारविहीन तन और चेहरे पर चस्पां बेबसी के भाव,जो ना जीने दे ना मरने,बस घिसे पिटे उसूलों को किस्मत मान ढोना उस अमूल्य जीवन को ,जिसको सार्थक करना हर इंसान का कर्तव्य भी है और अधिकार भी,पर कहां …. उसे तो इंसान भी नही माना जाता,जी हां मै उसी औरत की बात कर रही हुं ,जिसका जीवनसाथी बीच रास्ते में ही उसे छोङ जीवन को अलविदा कह जाता है ,जिसे समाज ने विधवा का नाम दिया है,जिस इंसान ने उसकी जिंदगी में जाने कितने रंग भरे,उसी की चिताग्नि में उस स्त्री की सारी खुशियां,सपने और रंगों को स्वाहा कर दिया जाता है,रह जाती है तो बस सफेदी में लिपटी,एक अभागी,लाचार सांस लेती एक नारी देह…,एक तरफ तो अपनी वैवाहिक खुशियों को खोकर यूंहि वो स्तब्ध होती है और उसी परिस्थिति में समाज उसपर वर्जनाओं की एक लंबी श्रृंखला थोप कर हर पल ये एहसास दिलाना चाहता है कि वो अधूरी हो चुंकी है और इस अधूरेपन में उसकी साथी सुखद यादें नही प्रतिपल दुखी करने वाले कायदों की फेहरिश्त होगी,जो उसके घावों को भरने तो नही ही देगी हां नासूर जरूर बना देगी………..पूजा-पाठ,धार्मिक कर्मकांड करने और समाज से यथासंभव दुरी बनाए रखने की ताकीद के साथ,वस्त्रों,आचार-विचार ही नही खाने-पीने तक में सादगी का पालन करने का आदेश……..,”कहां है समाज की संवेदनाएं”
नारी के सहनशीलता की परीक्षा की पराकाष्ठा नही तो और क्या है ये जहां वो अपना सहारा भी खोती है और नियमों के बोझ तले दबकर अपनी ख्वाहिशें भी…,सतीप्रथा भले ही खत्म हो गईं हो,.. हर पल जलाने वाली दुश्वारियां तो उससे भी बदतर हैं,यही नही पीङिता की आयु कम हो या ज्यादा..आक्षेपों का जो सिलसिला चल पङता है उससे भी बचने की एक त्रासदी……आखिर कैसे इंसान है हम जो उसके मां,बहन,बेटी वाले रूप को भूलाकर उस बदरंग चेहरे को ही उसकी सबसे बङी पहचान बना डालते है……
मैने कही पढा था एकबार- “दुख को दूर करने की सबसे अच्छी दवा है कि उसका चिंतन छोङ दिया जाय क्योंकि चिंतन से वह सामने आता है और अधिकाधिक बढता है……,” क्या उसपर थोथे आडंबर और जकङी हुई रुढिवादी सोच को लादने का उद्देश्य यही है कि कभी वो अपने उन गमियों से बाहर ही ना आ सके,उसने पति खोया है जीने का अधिकार नही ,हर इंसान गिनी हुई सांसों के साथ दुनियां में आता है, फिर जीवन चक्र का दोष एक नारी पर क्यों…,आज काशी-बनारस,वृंदावन में जो असहाय ,निर्बल,लाचार बेबस विधवाओं का कुनबा बसा है क्या वो हमारी प्रगति के मुख पर करारे तमाचे से कम है…..,जहां हर उम्र,हर तबके, हर वर्ग की औरते ,मजबूरी और ढकोसलो में दबी मोक्ष मार्ग बनाने में लगी है,क्या आपको लगता है कि वे सबकी सब अपने जीने की अभिलाषा खो चुकी होंगी.,फिर भी बाध्य है उस जीवन को अपनाने के लिए ,क्योंकि उनके समाज में उनकी स्थिति और भी विकट है,वहीं एक अनजान जगह पर बिन पहचान वाली जिंदगी जीना ज्यादा सरल भी है और तनावमुक्त भी,हंलाकि वहां भी कोई खास तवज्जो नही मिलती इनके अस्तित्व को पर कहते है ना कि अपनों की रूसवाई से गैर के ताने बेहतर है…..,जहां तक सरकार की बात है तो पुनर्विवाह को कानूनी सहमति देकर सरकार ने इस मसले पर ज्यादा ध्यान देना कभी भी उचित नही समझा…..अब कितने पुनर्विवाह होते होंगे और कितनी जिंदगियां फिर संवरती होंगी ये तो आप भी जानते होंगे
तो अब ये हमारा कर्तव्य है कि अपनी बिरादरी,समाज,आसपास,परिवार जहां भी हमें ऐसी अबलाएं दिखें हम उनके मन से ना केवल परिवार पर बोझ बन जाने के पूर्वाग्रह को निकालें बल्कि उम्र और काबिलियत के हिसाब से उन्हे जीवन को चलायमान बनाए रखने की दिशा दिखाएं ताकि अन्य ओर ध्यान लगा कर उसकी जिंदगी के बांकी दिन भी संवरे और अपनी अपूरणीय क्षति को भूलने का बहाना भी वो पा सके-ये हमारा नैतिक कर्तव्य भी है और मानवता का एक प्रमुख धर्म भी……बस समाज की दयादृष्टि के साथ साथ मानसिक और भावनात्मक संबल चाहिए उसे………………….कुदरत प्रदत्त उस खाई से भी गहरे जख्म को तो कोई नही भर सकता पर उसके ऊपर समाज के सहारे व संवेदना की मूंज जरूर बांधी जा सकती है,जिसपर चलने में उसके पांव तो जरूर डगमगाएंगे पर पार उतरते उतरते वो अपना खोया आत्मविश्वास और आत्मसम्मान पुन: प्राप्त कर लेगी…….जिंदगी के रूपहले रंग भले फिर उसके दामन में ना छिटके,पर अपनी मेहनत और लगन के रंगों से हासिल स्वाबलंब से वो जरूर अपनी जिंदगी सजा लेगी,….बस हमे माध्यम बनकर उसे उसकी क्षमता का एहसास दिलाना होगा ,जीने के एक सही राह दिखानी होगी…ताकि एक जीवन यूंहि अंधेरी कोठरी में घुटते-सिसकते ,अपने आप को कोसते अपने
अनंत सपनों को समेटते जाया ना हो जाए………….,क्या आपका दिल नही चाहेगा—-“आओ उसकी जिंदगी सजाएं.”….

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